(भैरव लाल दास) अक्टूबर, 2005 में हुए बिहार विस चुनाव से पहले ही स्पष्ट था कि जदयू और भाजपा साथ लड़ेगी। राम विलास पासवान की लोजपा ने अलग चुनाव लड़ने का संकेत भी दे दिया था। बिहार की आम-अवाम के दिलों में ‘जंगल राज’ के स्याह नारे उमड़-घुमड़ रहे थे। विश्व बैंक से लेकर ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल आदि संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत बिहार की प्रशासनिक और विकास के आंकड़ों से नजरें नीची हो जाती थीं। दिल्ली में ‘बिहारी’ मजदूरों का पर्यायवाची बन गए थे।...
नीतीश कुमार ने चुनावी कार्यक्रमों में नए बिहार की परिकल्पना प्रस्तुत की। जिसमें गरीबों की इज्जत के साथ कानून-व्यवस्था, बिजली, सड़क, शिक्षा, अस्पताल आदि मूलभूत चीजें उपलब्ध कराने का विश्वास भी था। पहली बार चुनावी सभाओं में गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, शेरशाह सुरी से लेकर गुरू गोविंद सिंह की चर्चा हुई जिसने विश्व फलक पर बिहार को प्रतिष्ठा दिलाई थी।
जनता नए बिहार के सपने के लिए नीतीश कुमार के हाथों में बिहार को सौंपने के लिए तैयार हो गई। इस चुनाव में परंपरागत ऊंची जातियां भाजपा के साथ थीं। यादव और पासवान जातियों को छोड़ जदयू अन्य पिछड़ी जातियों और दलित मतदाताओं को गोलबंद करने में जुट गई थी। स्पष्ट था कि यादव और पासवान लालू प्रसाद एवं रामविलास के साथ ही थे। हालांकि इस चुनाव में दोनों जातियों के मतदाताओं के रूझान में परिवर्तन आना भी शुरू हो गया था और इनका एक बड़ा वर्ग अब एनडीए गठबंधन की ओर आकृष्ट होने लगा था।
समाज की नई भाषा और जरूरत समझने में फेल रहे लालू और पासवान
फरवरी 2005 के चुनाव परिणाम से स्पष्ट था कि एक जाति के समर्थन से सत्ता हासिल नहीं होगी। नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग की। लालू और रामविलास इसे समझने चूक गए। फरवरी, 2005 में जो लोजपा और रामविलास पासवान 29 विधायकों के साथ ‘किंगमेकर’ की स्थिति में थे नवंबर 2005 चुनाव में मात्र 10 सीट ही जीत पाए। वह इसका हिसाब नहीं दे पाए कि उन्हें क्या हासिल हुआ7 इस विस में 54 यादव, 16 कुर्मी, 22 कोईरी और अन्य पिछड़ी जातियों के 20 विधायकों थे जो एक नया सामाजिक संदेश भी था।
बैठक जिसमें ‘समाधान’ से ‘समस्या’ हो गए लालू
23 जुलाई, 2005 को पटना के श्रीकष्ण मेमोरियल हॉल में पसमांदा मुस्लिम महाज और बिहार मोमिन वेल्फेयर सोसाइटी द्वारा दलित मुसलमानों को आरक्षण के लिए सभा आयोजित की गई थी। नीतीश और लालू दोनों सभा में उपस्थित हुए। नीतीश ने उनकी मांग का समर्थन किया वहीं लालू प्रसाद गोल-मोल बोलकर चले आए। चुनाव में इसका खास असर पड़ा। 8 जुलाई, 2005 को पसमांदा मुसलमानों के सात संस्थाओं ने मिलकर नारा दिया- ‘वोट हमारा फतवा तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, तथा ‘जो पसमांदा की बात करेगा, वही बिहार पर राज करेगा’।
दलित मुसलमानों ने लालू प्रसाद पर खुलकर आरोप लगाया कि दंगा से डराकर वह मुसलमानों का वोट ले लेते हैं। लालू प्रसाद के बनाए 14 मुसलमान एमएलसी में 12 और 7 कुलपति में सभी उच्च जाति के मुसलमान थे। पसमांदा के हिस्से कुछ नहीं है। दलित मुसलमानों ने अपने भाषणों में कहा कि लालू प्रसाद कभी समाधान थे, अब वे समस्या बन चुके हैं। उसके बाद जो हुआ वह परिणाम अब इतिहास है।
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दैनिक भास्कर,,1733
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