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Sunday, September 13, 2020

इन 6 कहानियों से समझिए कितना बड़ा था डाॅ. रघुवंश का कद, गरीबों के लिए संघर्ष करते हुए बीत गया जीवन

डाॅ. रघुवंश बाबू अब इस दुनिया में नहीं हैं। वैसे तो उनके द्वारा किए गए ऐसे सैकड़ों काम हैं, जिन्हें हमेशा याद किया जाएगा, लेकिन कुछ काम ऐसे भी हैं, जिससे उनकी छाप अमिट हो गई। आइए ऐसी ही 6 कहानियों के जरिए जानते हैं उनका जीवन कितने संघर्षों में बीता...

1. वैशाली से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, पूछ बैठे थे-हमरा वैशाली में के पहचानत ?

(शैलेश कुमार) 1996 के लोकसभा चुनाव का बिगुल फूंक चुका था। तब डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह बेलसंड के विधायक हुआ करते थे। 1994 के वैशाली संसदीय क्षेत्र के मध्यावधि चुनाव में लवली आनंद से किशोरी सिन्हा चुनाव हार गई थीं। लालू के लिए वैशाली की सीट प्रतिष्ठा का विषय बन गया था। लालू के आवास पर तत्कालीन मंत्री मुंशीलाल राय, श्रीनारायण यादव, जयप्रकाश यादव और शशि कुमार राय के साथ लालू वैशाली से किसको मैदान में उतारा जाए, इस पर मंत्रणा कर रहे थे।

दिवंगत शशि कुमार राय के पीए रहे रवि रंजन कुमार उर्फ मुन्ना बताते हैं कि शशि कुमार राय ने ही जातीय समीकरण को देखते हुए सवर्ण उम्मीदवार उतारने की बात कही। शिवचरण बाबू के निधन के बाद कोई सवर्ण चेहरा वैशाली के लिए नहीं मिल रहा था। इसी बीच रघुवंश बाबू बैठक में पहुंचे। शशि कुमार राय ने रघुवंश बाबू की ओर इशारा किया।

रघुवंश बाबू बोले- शिवहर सीतामढ़ी छोड़ के हम कहां जाऊ वैशाली (शिवहर-सीतामढी छोड़ कर मैं कहां वैशाली जाऊं?)...? हमरा वैशाली में के पहचानत? ... अच्छा विचार होई (मुझे वैशाली में कौन पहचानेगा? अच्छा विचार करेंगे)। तर्क-वितर्क के बाद रघुवंश बाबू वैशाली से राजद के लोकसभा प्रत्याशी बने। तब यानी 1996 से 1998, 1999, 2004 एवं 2009 में लगातार पांच बार जीते।

2. रघुवंश भाई राजनीति में विलुप्त हो रही पीढ़ी के कद्दावर नेता थे

शिवानंद तिवारी, राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं

रघुवंश भाई नहीं रहे, खबर पर यकीन नहीं हो रहा था। कोरोना का इलाज कराकर जब पटना एम्स से निकले थे, तो उनसे बात हुई थी। कहने लगे कि जान बच गई। पुनः दिल्ली एम्स में भर्ती होने की खबर पढ़कर फोन लगाया था। बताने लगे कि खांसी से परेशानी होने लगी थी। एक्स-रे कराया, छाती में दाग नजर आया। उसके बाद उदयन अस्पताल में सीटी स्कैन कराया। सीटी स्कैन करा कर घर लौट रहे थे, तो रास्ते में नीतीश जी (मुख्यमंत्री) का फोन आया। नीतीश जी ने कहा कि पटना में क्या कर रहे हैं? दिल्ली जाइए, वहीं इलाज करवाइए। उसके बाद अगले ही दिन दिल्ली आए और हवाई अड्डा से ही सीधे एम्स चले आए।

पटना से जाने के बाद वे एम्स में ही थे। हालांकि डाॅक्टर ने छुट्टी दे दी थी। लेकिन भीतर से स्वस्थ महसूस नहीं कर रहे थे। इसलिये एम्स में ही रह गए। बातचीत में कहीं नहीं लगा कि हालत इतनी गंभीर है। तीन दिन पहले उनके भतीजे ने बताया कि ऑक्सीजन लेवल कम हो गया था। इसलिए आईसीयू में ले जाया गया है। परसों उनके लड़के प्रकाश जी से बात हुई। पूछने पर बताया कि इधर की सारी चिट्ठियां रघुवंश बाबू ने आईसीयू से ही लिखी थीं। घर से लेटरपैड मंगवा मुख्यमंत्री को चिट्ठियां लिखीं। हाथ से लिखी चिट्ठियां को पढ़ने के बाद कौन यकीन कर सकता था कि वे दुनिया को छोड़ कर जाने वाले हैं? रघुवंश भाई को मंत्री के रूप में भी मैंने संसद में देखा है।

ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में मनरेगा योजना इन्हीं के कार्यकाल में तैयार हुई थी। इस योजना के प्रति उनके लगन और निष्ठा के लिए सब लोग उनकी इज्जत करते थे। विभागीय सवालों का जवाब देने में उनको किसी सहायता की जरूरत महसूस करते मैंने नहीं देखा। किसी भी सवाल का विस्तार से जवाब देते थे। एक बेदाग मंत्री, जिसके चरित्र पर किसी विरोधी ने भी कभी उंगली नहीं उठाई। हम कह सकते हैं कि रघुवंश भाई राजनीति में विलुप्त हो रही पीढ़ी के नेता थे। अब नए लोग अपने बूढ़े-बुजुर्गों से ऐसे नेता की कहानियां सुना करेंगे। ऐसे रघुवंश भाई की स्मृति में मैं श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं।

3. आपातकाल में नौकरी तक दांव पर लगा दी पर तानाशाही न सही

(शिशिर कुमार) डॉ. रघुवंश की पहचान शुरू से ही समाजवादी के साथ ही मजबूत इरादे वाले नेता के रूप में रही है। आपातकाल में उन्होंने प्राध्यापक की नौकरी दांव पर लगा दी, लेकिन सरकारी तानाशाही के आगे झुके नहीं। वे भूमिगत आंदोलन चला रहे थे। गिरफ्तार करने के लिए प्रशासनिक दबाव पर गोयनका काॅलेज प्रबंधन ने पत्र भेज कर योगदान करने या बर्खास्तगी झेलने की चेतावनी दी। अखबार में विज्ञापन छपवा दिया।

सीतामढ़ी के तत्कालीन नगर विधायक महंत श्याम सुंदर दास का आवास जन संघर्ष समिति का मुख्यालय था। रघुवंश भी यहीं शरण लिए हुए थे। महंत दास के गांव में छापाखाना था। इसकी कमान डॉ. सिंह ही संभालते थे। आपातकाल के विरोध में आंदोलन के दौरान इसी छापा खाने से प्रचार सामग्री छाप कर बांटी जाती थी। महंत दास के पुत्र महंत राजीव रंजन दास कहते हैं- पुलिस आंदोलनकारियों को ढूंढ़ रही थी। छात्रों के अगुआ नेताओं की गिरफ्तारी होती रही।

लोग जेल के अंदर आकर जेल से बाहर होते रहे। पिताजी जमानत पर जेल से निकल चुके रघुवंश बाबू पुलिस की नजर में भगोड़ा ही थे। 3 जून 1976 को मंच की बैठक बुलाई गई थी। पिताजी ने रघुवंश बाबू को बुलवाया और नौकरी जॉइन कर लेने की बात कही। लेकिन, रघुवंश बाबू ने दाे टूक कहा- अापकी यह बात नहीं मानूंगा उनका कहना था-अभी जा कर दस्तखत करने का मतलब सरेंडर करने के समान होगा। नौकरी भले ही चली जाए, मगर समर्पण नहीं करेंगे।

4. चलिए ब्रह्म बाबा के यहां, भूंजा ओल की चटनी खाने का मन है

रामचंद्र पूर्वे, राजद के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष

पूर्वे जी भूजा और ओल की चटनी खाने का मन कर रहा, चलिये ब्रह्म बाबा के यहां चलते हैं और 1, अणे मार्ग से मुख्यमंत्री लालू प्रसाद का काफिला डाॅ. रघुवंश बाबू की घर की तरफ निकल पड़ता था।’ देहाती खाने के शौकीन रघुवंश बाबू दूध-रोटी भी इतनी चाव से खाते थे मानो दिल्ली के किसी पांच सितारा होटल का लजीज खाना हो।

वो हमसे तीन साल छोटे थे पर कद इतना बड़ा था कि हम अपने को उनसे छोटे समझते थे। पर उनकी सादगी ऐसी की सामने पड़ने पर पहले ही हाथ जोड़ लेते थे। जब तक हम कुर्सी पर नहीं बैठ जाये, वो खड़े रहते थे। हम और वो दोनों मैथ के टीचर थे। वो गोयनका कॉलेज, सीतामढ़ी में प्रोफेसर थे, हम मुजफ्फरपुर के लोहिया कॉलेज में टीचर थे। दोनों कर्पूरी जी के शागिर्द, इसलिये मन मिजाज एक सा। पर अंतर ये कि हम जितने शांत वो उतने ही पॉलिटिकली लड़ाकू। हालत ये कि शिक्षक आंदोलन से उनकी जो जेल यात्रा शुरू हुई वो लगातार जारी रही।

मंत्री बनने के बाद भी कोई कॉम्प्लेक्स नहीं। प्रचार करने का अपना अंदाज। गंवई नारों के डिक्शनरी। कहीं से फोन पर उनसे पूछ लीजिये, गाने लगते थे- ‘राजा की हो या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान। जाग-जाग हो किसान, धरती के भगवान, काहे सूतल हव चदरिया तान के।’ हमेशा पॉलिटिकल स्लोगन जीभ पर। भाषण देने के लिये मैदान की जरुरत नहीं, चौक-चौराहा जहां थोड़े लोग भी दिख जाये, भाषण चालू।

मोटरसाइकिल-टूटही जीप हो कार्यकर्ता की गाड़ी किसी पर चढ़के क्षेत्र में घूम लेना। कोई हिचकिचाहट नहीं। वर्ष 77 में वो विधायक बने और वर्ष 2004 में केन्द्रीय मंत्री पर कोई हनक या ठसक नहीं। हम 1986 में एमएलसी बने पर वो हमेशा ‘पूर्वे जी’ ही पुकारते रहे। मुजफ्फरपुर जिला कर्मभूमि पर शहर में किराये के मकान से जीवनभर राजनीति गतिविधि चलाते रहे। मंत्री हुए तो सर्किट हाउस में रुक गये। सुबह लोग से मिलना, दोपहर 12 के बाद भरपेट खाना और गमछा लटका देर रात तक क्षेत्र में शादी-ब्याह, श्राद्ध-पूजा में शामिल होना- यही थी उनकी रोज की दिनचर्या।

5. नहीं बना सके आशियाना कहते रहते थे-जनता के दिलाें में उनका ठिकाना

(दिग्विजय कुमार) रघुवंश बाबू गणित के प्राध्यापक रहते हुए भी अपने लिए कभी हिसाब-किताब नहीं कर सके। तभी ताे सीतामढ़ी से वैशाली तक के अपने राजनीतिक गढ़ में काेई स्थाई ठिकाना नहीं बना सके। सर्किट हाउस में जगह मिल गई ताे वहीं ठहर लिए। वरना, कभी अपने समर्थकाें के घर पर रात बिता लेते थे। 1996 से लेकर अबतक मुजफ्फरपुर में किराए के अलग-अलग मकान में ही उनका चुनावी वार रूम सजता था। यहीं वह अपनाें से मिलते थे।

घंटाें बतियाते थे। देश की स्थिति पर खुलकर बाेलते थे। अपनाें की भी आलाेचना करने में वह नहीं हिचकते थे। 2014 तथा 2019 के लाेकसभा चुनाव में वैशाली से शिकस्त मिलने के बावजूद अपने क्षेत्र की समस्याओं काे उठाते रहे। हार के बावजूद अपने समर्थक के लिए वह वैशाली का प्रतिनिधित्व करते रहे।

स्थायी ठिकाना काे लेकर पूछे जाने पर कहते थे कि जनता के दिल में ही उनका अपना मकान है।
हर साल मकर संक्रांति पर अपने समर्थकाें एवं मीडियाकर्मियाें काे वह चूरा-दही का भाेज खिलाना नहीं भूलते थे। हर साल मुजफ्फरपुर में वह अपने अस्थाई ठिकाना पर ही चूरा-दही का भाेज देते थे। कभी सर्किट हाउस ताे कभी अपने किराए के मकान में। 2020 में भी गाेबरसही स्थित एसजे पैलेस में उन्हाेंने भाेज दिया था। वे अपने पास मोबाइल भी नहीं रखते थे। पीए के फोन से बात करते थे।

6. विशेष राज्य का दर्जा क्यों मिले? लोकसभा में रघुवंश का जवाब

धन्यवाद देना चाहता हूं कि इस अहम सवाल पर, बिहार का आर्थिक संकट, बिहार का पिछड़ापन और बिहार की गरीबी पर संसद का बहुमूल्य समय लगाया जा रहा है। बिहार पर बड़ा भारी ग्रह है। बिहार का गौरवशाली इतिहास रहा है।

बिहार जनतंत्र की जननी रही है। हमने लिंकन से डेमोक्रेसी नहीं सीखी है। पुरखों ने लोकतंत्र बनाया है। भगवान बुद्ध जब लिच्छवी पहुंचे तो कहा कि च्यहां रुल ऑफ लॉ है... लोक नियम बना कर रहते हैं। दिनकर ने वैशाली के बारे में कहा कि च्च्वैशाली! जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता/ जिसे ढूंढता देश आज उस प्रजातंत्र की माता।/ रुको, एक क्षण पथिक! यहां मिट्टी को शीश नवाओ/ राजसिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ। (इतिहास की बात पर सदस्यों के द्वारा टीका-टिप्पणी पर उन्होंने कहा..) इतिहास जानना जरूरी है। जो कौमें इतिहास को याद रखती हैं वह कभी गुलाम नहीं हो सकती।

सवाल उठ रहा है कि बिहार की हालत क्यों खराब हुई। आजादी मिली थी तो बिहार का स्थान तीसरा था... गुड गर्वनेंस में बिहार का नाम था... पर-कैपिटा इनकम में बिहार का स्थान तीसरा था...पहली पंचवर्षीय योजना में पर-कैपिटा इंवेस्टमेंट देश में सबसे कम, 25 रुपए था महोदय। राष्ट्रीय औसत था 50 रुपए। दूसरी पंच वर्षीय योजना में बिहार में पर-कैपिटा इंवेस्टमेंट 40 रुपए, देश का औसत था 50 रुपए। तीसरी पंचवर्षीय योजना में देश का औसत था 90 रुपए था जबकि बिहार में पर-कैपिटा इंवेस्टमेंट था 67 रुपए।

चौथे पंचवर्षीय योजना में बिहार में पर-कैपिटा इंवेस्टमेंट रहा 81 रुपए देश का औसत था 141 रुपए। पांचवीं में 140 रुपए बिहार में तब देश का औसत था 232 रुपए। फलस्वरूप आधारभूत संरचना और समाज सेवा में जहां बिहार देश तीसरे स्थान पर था पहले पंचवर्षीय योजना में बिहार नौवें स्थान पर, दूसरे में 13वें और तीसरे में 16वें स्थान पर पहुंच गए, चौथी पंच वर्षीय योजना में 22 वें स्थान पर पहुंच गया अब सभी से नीचे है।...

महोदय, सारा खान खनिज था अविभाजित बिहार में, कोयला, अभ्रक, लोहा एल्यूमिनियम, ग्रेफाइट आदि रहते हुए बिहार पिछड़ा रहा... सवाल उठेगा.. विशेषज्ञ-बुद्धिजीवी और जो लोग अंधकार में हैं वो जानना चाहेंगे कि जब सारी संपत्ति अविभाजित बिहार में थी तो बिहार कैसे पिछड़ा रह गया। यह ठीक है कि बिहार की राजनीति में राजेंद्र बाबू, जगजीवन बाबू और सभी महान लोग हुए हैं, लेकिन उनमें रीजनलिज़म नहीं था, उन्होंने हिन्दुस्तान को ही देश समझा इस वजह बिहार नीचे चला गया, पिछड़ता चला गया।

जिन लोगों को भ्रम है, बिहार कैसे पीछे चला गया, योजना आयोग की मजूमदार कमेटी की रिपोर्ट उसका साक्ष्य है। महोदय, बिहार का लोग हंसी उड़ाते, और सवाल उठाते हैं। लेकिन हमारे छात्र आईएएस-आईपीएस बन रहे हैं। हमारे मजदूर देश में उद्योग चला रहे हैं। हम मेहनत करना बंद कर दें तो उद्योग ठप हो जाएंगे।... लेकिन महोदय एक त्रासदी है... 20वीं सदी में बिहार का बंटवारा तीन बार हुआ। कौन राज्य है जिसको तीन बंटवारा का सामना करना पड़ा है।

ग्रेट बंगाल से 1912 में बिहार-उड़ीसा बंटा। 1937 में बिहार से उड़ीसा अलग हुआ। फिर 2000 के 15 नवंबर को बिहार से झारखंड अलग हुआ। अंग्रेजी सल्तनत के समय कहा गया बिहार नहीं बंटना चाहिए, कांग्रेसी सल्तनत में पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी ने कहा बिहार नहीं बंटना चाहिए। लेकिन एक समय आया कि राजनीतिक कारणों से बिहार का बंटवारा हो गया। महोदय, श्रीमती सोनिया गांधी, स्व. माधव राव सिंधिया सब मेरे बंटवारे के विरोध में लाए गए अमेंडमेंट के विरोध में खड़े हो गए। एक महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण हुआ था, दूसरा यहां हुआ।



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डाॅ. रघुवंश बाबू को दो दिन पहले 10 सितंबर को ही अहसास हो गया था कि वे अब ज्यादा दिन नहीं रहेंगे, इसलिए उन्होंने चार मांगों को लेकर सीएम नीतीश कुमार को खत लिखा।

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दैनिक भास्कर,,1733

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